जनसत्ता
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अक्टुबर, 2012: गंगा को प्रदूषण-मुक्त बनाने
के नाम पर अब तक हजारों करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। लेकिन गंगा की सफाई के
लिए सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर चलाए गए अभियानों की हकीकत स्तब्ध करने वाली है।
आइसीएमआर यानी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के तहत राष्ट्रीय कैंसर पंजीकरण
कार्यक्रम की ओर से कराए गए अध्ययन के मुताबिक उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में गंगा में प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि वह
अपने किनारे बसी आबादी के लिए बीमारियों का स्रोत साबित हो रही है। देश के दूसरे
क्षेत्रों के मुकाबले यहां के लोगों पर कैंसर का खतरा अधिक मंडरा रहा है। विडंबना
यह है कि हमेशा से जीवनदायिनी मानी जाने वाली गंगा का यह हाल होता हम चुपचाप देख
रहे हैं। आज गंगा में बड़े पैमाने पर घुल चुकी भारी धातुएं और घातक रसायन कैंसर
जैसी खतरनाक बीमारी की वजह बन चुके हैं। खासतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल और बिहार के बाढ़ वाले इलाकों में पित्ताशय की थैली, गुर्दे, आहार नली, प्रोस्टेट,
यकृत, मूत्राशय और त्वचा के कैंसर के मामले
बढ़ते जा रहे हैं। गौरतलब है कि इन इलाकों में प्रति एक लाख की आबादी में बीस से
पचीस ऐसे लोग पाए गए जो कैंसर की जद में आ चुके हैं। यह अनुपात देश के किसी भी
दूसरे क्षेत्र के मुकाबले ज्यादा है और इसकी असल वजह किसी न किसी रूप में गंगा के
प्रदूषित पानी का इस्तेमाल है। किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन गंगा का यह
हाल हो जाएगा।
करीब छह महीने पहले राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण की बैठक को
संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि गंगा में हर रोज दो अरब
नब्बे करोड़ लीटर प्रदूषित जल बहाया जा रहा है और राज्य सरकारें इस समस्या से
निपटने के लिए बेहद ढीले-ढाले अंदाज में काम कर रही हैं।
उन्होंने
राज्यों से उन औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा था जो गंगा को इस
कदर प्रदूषित करने के लिए जिम्मेदार हैं। विभिन्न सरकारी-गैरसरकारी बैठकों से लेकर
पर्यावरणविदों की ओर से इस तरह की चिंता सालों से जताई जाती रही है और कई तरह के
उपाय भी सुझाए जाते रहे हैं। लेकिन इन पर अमल के मामले में सरकारों या संबंधित
महकमों ने कितना कुछ किया है, यह गंगा की इस हालत से जाना जा सकता है कि
आज इसका पानी पीने लायक तो दूर, नहाने और खेती करने लायक तक
नहीं बचा है।
दरअसल, गंगा में
क्रोमियम, सीसा, कैडमियम, आर्सेनिक जैसे जहरीले रसायनों के मूल स्रोत वे औद्योगिक इकाइयां हैं जिन
पर सैकड़ों आश्वासनों के बावजूद कोई लगाम नहीं लगाई गई है। 1985 में शुरू की गई गंगा कार्य योजना एक हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद
विफल साबित हुई। केवल बजटीय प्रावधान करके समस्या से निपटने की आधी-अधूरी कोशिशों
का यही हश्र होता है। इतने बड़े पैमाने पर रकम खर्च करने के बावजूद गंगा की ऐसी
दुर्दशा क्यों है इसकी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए।
हमारे
सामने लंदन की टेम्स नदी का उदाहरण है जिसे न सिर्फ वहां की सरकार, बल्कि
नागरिकों ने अपनी जिम्मेदारी समझ कर फिर से जिंदा किया और आज वह दुनिया में निर्मल
नदी की एक मिसाल बन चुकी है। गंगा को भी इसी तरह की इच्छाशक्ति की जरूरत है।
आधुनिक विकास की अवधारणा में नदियों को सिर्फ संसाधन के तौर पर देखा जाता है। इस
नजरिए को भी बदलना होगा।